चादर
Updated: Feb 13, 2019
जब चादर लंबी हुआ करती थी
हुमारे लिए ही तो दर्ज़ी ने
सी थी|

तब ऊँचाइयों से देखा करते थे हम मेले,
कभी गोद में तो कभी कंधों से रावण जलते देखे थे|
धूल और माटी में नहाया करते थे,
खेल-खेल में सब दिन गुज़रा करते थे|
चटपटी सी हुई करती थीं
खेल की कहानियाँ भी,
ऐसे सुनाया करते थे जैसे कोई जंग है लड़ी|
लंबे दिन और रातें छोटी,
अटपटी सी कहानियाँ बनाते और सुनाते थे|
कभी इन नन्हे हाथों पर बड़ी-बड़ी घड़ी डाले घूमा करते थे,
अपने-अपने पापा की ताक़त के बड़े सारे चर्चे हुआ करते थे|
बस दो पहियों की दौड़ लगाकर खुश हुआ करते थे,
नए बस्ते और नई बोतल
पर तो नए साल की रिश्वत लिया करते थे|

तब मटकी तोड़, घर में छुप-छुप कर घुसा करते थे,
झूठ के नायाब बाँध बुना करते थे|
तब किसी आलीशान महल के आँगन में झूला करते थे,
चार बड़ी सीढ़ी फांदकर
हल्ला किया करते थे,
साहबज़दों सी थी हरकतें
रूठ कर मूह फुलाकर मोर्चे पर बैठा करते थे|
आज उसी चादर को सर के तले रख
वही सपनें देखा करते हैं|
बस कुछ आंगुल बाहर ही सोया करते हैं|